'विस्थापन, स्मृति और सांस्कृतिक नागरिकता : कथात्मक और सैद्धान्तिक पाठ' का लोकार्पण व परिचर्चा

मानव सभ्यता के विस्थापन, स्मृति के विरोधाभास और सांस्कृतिक नागरिकता के द्वन्द्वों पर प्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण

वाणी प्रकाशन ग्रुप से प्रकाशित व मधु साहनी, शांभवी प्रकाश और लिपि बिस्वास सेन द्वारा सम्पादित नयी पुस्तक 'विस्थापन, स्मृति और सांस्कृतिक नागरिकता : कथात्मक और सैद्धान्तिक पाठ' का लोकार्पण व परिचर्चा का आयोजन आज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली में हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत में जेएनयू, नयी दिल्ली की सीएसपीआईएलएएस (स्पेनिश) में सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. लिपि बिस्वास सेन पुस्तक की भूमिका प्रस्तुत करते हुए कहा कि, “विस्थापन हमारे देश में भी होते हैं। विस्थापन के बाद रह जाती हैं स्मृतियाँ, संस्कृति आदि। यह किसका देश है, किसको नागरिकता मिल जायेगी, यह कौन तय करता है। यह पुस्तक एक कोशिश है विस्थापन को पाठकों तक पहुँचाने की।”

जेएनयू नयी दिल्ली के भाषाविज्ञान केन्द्र में प्रो. आयशा किदवई ने कहा कि “भाषा के अनुवाद होते रहने चाहिए। जिससे हम अपनी संस्कृति को बचा पाये।”

जर्मनिक अध्ययन विभाग, हैदराबाद में सहायक प्रोफ़ेसर डॉ. अनु पांडेय ने कहा कि, “भाषा ने स्पष्ट किया है कि स्मरणशक्ति अतीत के अन्वेषण का साधन नहीं बल्कि माध्यम है। यह उसी तरह से मनुष्य द्वारा किये गये अनुभवों का माध्यम है, जैसे मिट्टी वह माध्यम है जिसमें पुराने शहर दफ़न पड़े हैं। जो भी अपने दफन अतीत के क्रीब आने की इच्छा रखता है, उसे किसी खुदाई करने वाले व्यक्ति की तरह बनना पड़ेगा। खास तौर पर उसे एक ही तथ्य पर बार-बार वापस आने से उसे बिखेरने से, जैसे कोई मिट्टी को बिखेरता है, उसे उथल-पुथल करने से, जैसे कोई मिट्टी को खोदकर उथल-पुथल करता है- डरना नहीं चाहिये।”

मानव सभ्यता के विस्थापन, स्मृति के विरोधाभास और सांस्कृतिक नागरिकता के द्वन्द्वों पर प्रकाशित पुस्तक का लोकार्पण

अनुवाद अध्ययन, फ्रेंच और फ्रैंकोफोन अध्ययन विभाग, क्रेया विश्वविद्यालय चेन्नई  से  डॉ. किशोर गौरव ने अनुवादक के रूप में अपने अनुभव साझा किये और कहा, “हमारे समाज में अनुवाद का होना महत्वपूर्ण है जिससे कि एक सरल सहज़ भाषा में चीज़ों को समझा जा सके।”

गौरव सौनिक ने अपने वक्तव्य में कहा कि, “मैंने इतना जाना है कि अनुवाद करना कठिन काम है। उन्होंने एक कविता पढ़ते हुए कहा कि यहूदियों ने कई देशों में शरण ली लेकिन तीन देशों ने मुझे बाहर थूक दिया।”

मधु साहनी ने अपने वक्तव्य में कहा, “यह काम हमने बहुत ज़िम्मेदारी के साथ किया है। अपने समय को समझने के लिए, एक सोच को बनाने के लिए यह हमारी ओर से एक कोशिश है।”

लता कुमारी (अनुवादक) ने कहा कि, “लातिन अमेरिका और इण्डिज़ में उत्सवों के अध्ययन के लिए विभिन्न दृष्टिकोण अपनाये गये हैं। पारम्परिक तौर पर इसे व्यक्ति और समूह को स्थानीय समुदाय में समाहित करने वाले सामाजिक परिप्रेक्ष्य की तरह देखा गया है।”

व्यापक स्तर पर देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि इण्डिज़ उत्सवों और लोक अभिव्यक्तियों में पेरू के नागरिक और देशभक्त के पुरुष संस्करणों का विशेषाधिकार है, जिनके राजनीतिक और नैतिक प्राधिकार अधिकारवादी और सैन्य सिद्धांतों पर आधारित होते हैं।

किताब का परिचय :

इस बहुविषयक परियोजना के तहत मौखिक व लिखित वृत्तान्त व सैद्धान्तिक लेख ‘मेमरी स्टडीज़' अर्थात् स्मृति अध्ययन के क्षेत्र से जुड़े हैं जो बहुभाषिकता, परासांस्कृतिक प्रवास पर केन्द्रित हैं और उन प्रवासियों पर प्रकाश डालते हैं जिनके पास मातृभूमि त्यागने के अतिरिक्त कोई और विकल्प न था। ये हिन्दी अनुवाद पाँच भाषाओं के स्वाभाविक मिले-जुले अस्तित्व के आधार पर किया गया है, जो राष्ट्र, जाति व लिंग की सीमाओं से परे जाने का एक सार्थक प्रयास है। प्रस्तुत अनुवाद संग्रह योहान वोल्फगांग फॉन ग्योठे द्वारा रचित 'विश्व-साहित्य’ की परिकल्पना की ओर किंचित मात्र योगदान है जो मनुष्य और मानवीयता को सम्मिलित करता है और इस प्रक्रिया में भी विलक्षण को सार्वभौमिकता के दायरे में रखता है। तीन देशों ने मुझे बाहर थूक दिया जैसे एक लाश को तूफ़ानी समुद्र बाहर थूक देता है।